Monday, June 03, 2013

शोर

क्यूँ इतना प्रकाशीय यह शोर है ?
न ही कुछ दिख रहा है, न कुछ सुन पा रहा हूँ
कहाँ से कहाँ तक है यह?
शांत शुरुवात थी। शीशे सा दिखता था।
यही हूँ में, या बाहर है यह कहीं? सोचना फ़िज़ूल लगता था।

तुम ने सुना है कभी इसको ?
आराम से सोते हो?
कभी रो पाते हो आराम से, डर के? या उससे भी डरते?
सिसकियाँ तुम्हारी भी घुलती जाती हैं इसमें ?
पहुँच पाती हैं किसी तक?
या, क्या तुम ही बस उनको सुनते हो?

शायद यही हूँ में।
बाहर है यह नहीं
नहीं तो सुन तुम भी पाते इसको
होता तुम्हारे साथ यही
देखता कोई तो, सुन पाता  कोई।

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