घुप्प ख़ामोशी थी,
जब आवाज़ की चाह थी तेरी
ठंडे हैं सब लोग यहाँ
तभी शायद इतनी गरमाहट की चाह है तेरी।
डरावना अँधेरा है,
एक झलक की चाह है तेरी।
बदल रहा है सब कुछ यहाँ
समझूँ जिसको, उस इशारे की चाह है तेरी।
सभी की तरह ही, समझता कोई नहीं,
बोल पाऊं जिनको तुझे,
उन शब्दों की चाह है मेरी।
पर शिकायत ही है अब जो है यहाँ,
शिकायत भरे यह शब्द हैं,
शिकायत भरी यह खामोशियाँ,
यादें हैं तेरी बस अब,
जिनमें शिकायत है नहीं।
जो याद है मुझे, अब आखरी उस एहसास की चाह है मेरी