जो कमी कभी थी,
और जो अभी है।
आरम्भ से खिची लकीर, दूर जो है, आ रही है यहाँ तक पर अद्रश अभी है।
जब ज्ञात है सब कुछ और यह ज्ञात नहीं,
तो अंधकार में क्या ढूंढ़ता हूँ,
और क्यूँ यह सब फ़िज़ूल पूछता हूँ?
क्या दिन है आज का?
क्या रात यह बस आज की है?
यह दिन ढलेगा नहीं कल?
फिर क्यूँ मंजिल से बढकर, राह मुझे राह की है?
अन्दर जो देखा तो खोखला दिखा,
और बहार भी तो कुछ भरा नहीं है,
क्या ज्ञात है मुझे जब अंतर यह मालूम नहीं।
छोटी सी दुनिया और बढकर तुम थी,
अब घट तू रही है? या दुनिया यह बढती जा रही है?
कभी तुम थी बस इसमें. अब छाया तुम्हारी इस में समां रही है?
जो ढल रहा सूर्य है, यह और बढकर मुझे डरा रही है।
दिखता नहीं है और कुछ,
आरम्भ से खिंची लकीर दूर जो थी. शायद यहाँ तक अभी भी आ रही है।